देवताओं के धन की रक्षा करने वाले कुबेर देव की विधि-विधान से की गई पूजा किसी भी दरिद्र को धनवान बना सकती है, महालक्ष्मी के साथ ही कुबेर देव की पूजा की जाए तो बहुत जल्दी व्यक्ति की किस्मत बदल सकती है।
आमतौर पर कुबेर देव की जो प्रतिमाएं दिखाई देती हैं, वह स्थूल शरीर वाली और बेडोल होती हैं। कुबेर देव को कुछ ग्रंथों में यक्ष बताया गया है। यक्ष धन के रक्षक ही होते हैं और वे केवल रक्षा ही करते हैं, उसे भोगते नहीं हैं। प्राचीन काल में जो मंदिर बनाए जाते थे, उन मंदिरों के बाहर कुबेर की मूर्तियां धन रक्षक के रूप में स्थापित की जाती थीं।
- धन के कोषाध्यक्ष कैसे बने कुबेर
शास्त्रों के अनुसार कुबेर देव अपने पूर्व जन्म में चोर थे। प्रचलित कथा के अनुसार कुबेर देव ने पिछले जन्म में चोरी करते समय अनजाने में ही एक ऐसा उपाय कर लिया था, जिससे उन्हें कुबेर देव का पद प्राप्त हुआ। शास्त्रों के अनुसार कुबेर देव पूर्व जन्म में चोर थे। वे मंदिरों की धन-संपदा भी चोरी किया करते थे। एक रात वे भगवान शिव के मंदिर में चोरी करने पहुंचे। उस समय काफी अंधेरा था। अंधेरे में उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, तब उन्होंने चोरी करने के लिए एक दीपक जलाया। दीपक के प्रकाश में उन्हें मंदिर की धन-संपत्ति साफ-साफ दिखाई देने लगी। कुबेर देव मंदिर का सामान चोरी कर ही रहे थे कि हवा से दीपक बुझ गया। उन्होंने पुन: दीपक जलाया, थोड़ी देर बाद फिर हवा चली और दीपक बुझ गया। कुबेर ने पुन: दीया प्रज्जवलित कर दिया। यह प्रक्रिया कई बार हुई। रात के समय शिवजी के समक्ष दीपक लगाने पर महादेव की असीम कृपा प्राप्त होती है। कुबेर यह बात नहीं जानते थे, लेकिन रात के समय बार-बार दीपक जलाने से भोलेनाथ कुबेर से अति प्रसन्न हो गए। कुबेर देव द्वारा अनजाने में की गई इस पूजा के फलस्वरूप महादेव ने उन्हें अगले जन्म में देवताओं का कोषाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। तभी से कुबेर देव महादेव के परमभक्त और धनपति हो गए।
- कौन है यक्ष?
पौराणिक दृष्टि से रामायण काल के ऐतिहासिक अवलोकन से जो तथ्य सामने आये हैं, उनके अनुसार विन्ध्य पर्वत के उत्तर ओर आर्यावर्त क्षेत्र था जिसमें आर्य (मानव) बसे हुए थे। उनमें से भी बहुत से लोग टूट-टूट कर कालान्तर में दक्षिण में बसने लगे। ऐसे लोग जो आध्यात्मिक वृत्ति छोड़कर भोग वासना आदि की ओर आकृष्ट हुए और दक्षिण में बसने लगे उन्हें वात्य की संज्ञा दी गई।
अरुणकुमार शर्मा अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि राक्षसों के साथ यक्षों का सर्व प्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध है। यहाँ वैश्रवण, कुबेर राजा और राक्षस व उनकी प्रजा के रूप में वर्णित है।
ऊपर जिन 'वात्यों' का उल्लेख किया गया है, उनमें एक ऋषि पुलस्त्य भी थे जो दक्षिण में जा बसे थे। उनके पुत्र थे विश्रवा। विश्रवा की प्रथम पत्नी इलविडा से वैश्रवण कुबेर की उत्पत्ति हुई और दूसरी पत्नी कैकसी से उत्पत्ति हुई रावण की। इस प्रकार कुबेर और रावण समरक्त भाई थे।
कुबेर ने धन के लिए तप किया। वह उत्तर में जा बसा। रावण जाकर दक्षिण में बस गया। उसकी नगरी लंका थी। जबकि कुबेर की नगरी थी--अलका। कुबेर थे तपस्वी, साधक और अध्यात्मप्राण। उसे कई दुर्लभ चमत्कारी सिद्धियां प्राप्त थीं। इसलिए यक्षों ने उनका राज्याभिषेक कर उन्हें अपना राजा बना लिया। इस तरह कुबेर यक्षपति बन गए।
यक्ष संस्कृति के अधिष्ठाता कुबेर भोग विलास और देवार्चन, पूजन, धर्म-कर्म आदि से सम्बंधित दोनों संस्कृतियों को स्वीकार करते थे। वे भोग में योग की भावना रखते थे। दोनों संस्कृतियाँ उनके लिए अपने-अपने स्थान पर महत्व रखती थीं। पहली संस्कृति लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी जबकि दूसरी करती थी आध्यात्मिक और पारलौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति। यक्षों के अधिष्ठातृ देव हैं--रुद्र जो उनके उपास्य देव हैं।
यक्षों के अधिष्ठाता कुबेर का सम्बन्ध धन से है। जिस प्रकार गुह्यक उनके धन- संपत्ति की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुबेर भी देवताओं के धन- संपत्ति की रक्षा करते हैं। देखा जाय तो वास्तव में देवताओं के राजा इन्द्र के कोषाध्यक्ष हैं कुबेर।
यक्षों की दूसरी विशेषता उनका जीवन के प्रति व्यावहारिक ज्ञान और विद्वता है। उनकी ज्ञान-विदग्घता बड़ी गहन थी। युधिष्ठिर जैसा सत्यवादी ज्ञानी पुरुष से प्रश्न करने वाला कोई यक्ष ही तो था जो मनुष्य से तीन गुना लम्बा था। उसका शरीर विशालकाय था और उसके नेत्र बड़े बड़े थे। उसका मस्तिष्क काफी चौड़ा था। बाल घने, काले और लम्बे थे। वह सूर्य के समान तेजस्वी था और उसकी वाणी में मेघ गर्जन की समानता थी। - दीपावली के दिन यक्ष व कुबेर पूजन का विधान
दीपावली की अमावस्या की रात्रि को 'यक्षरात्रि' कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परम चेतना रूप महाकाल है जिसकी महानिशा में अन्धकार के रूप में पराचेतना महाकाली चारों ओर से आवृत कर लेती है। यक्षगण महानिशा बेला में मनुष्य के विभिन्न रूपों में धरती पर विचरण करते हैं। भिखारी के रूप में, चांडाल के रूप में, कोढ़ी के रूप में, सन्यासी के रूप में या फिर साधारण मानव रूप में। कभी कभी धनी सेठ की वेशभूषा में भी विचरण किया करते हैं। लेकिन एक साधक ही उनकी पहचान कर सकने में समर्थ होता है।
दीपावली के सायंकाल का समय अपने आप में अति महत्व रखता है। उस समय जिस गृहस्थ के मकान के मुख्य दरवाजे पर उत्तर और दक्षिण दिशा में दीपक जलते हुए यक्ष देखते हैं तो उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती। ऐसे में अगर वे विचरण करते हुए अपने लिए यज्ञ होते हुए अगर वे देखते हैं तो वे उस गृहस्थ को धन-धान्य से पूर्ण रहने और स्वस्थ व प्रसन्न रहने का आशीर्वाद देते हैं। यक्षों को मिठाइयां विशेष रूप से पसंद हैं। दीपावली के समय कोई व्यक्ति किसी रूप में आ जाये और मिठाई खाने के लिए मांगे तो उसे मिठाई अवश्य देनी चाहिए। चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा की रातें यक्षरात्रियां कहलाती हैं। इन दिनों रातों में यक्षगण यक्षिणियों के साथ पृथ्वी पर खास कर भारत भूमि पर विचरण करते मिल जाते हैं। यक्षजाति मानवजाति के अत्यन्त निकट है। यक्षसंस्कृति और मानवसंस्कृति की एकरूपता पुराणों में अनेक स्थानों पर देखने को मिलती है। कभी कदा अवसर प्राप्त होने पर यक्ष लोग मानव शरीर में भी जन्म ले लेते हैं और अपने रूप, सौंदर्य, आकर्षक व्यक्तित्व और वाकपटुता व दूरदर्शिता के कारण उच्चकोटि के कलाकार, नाटककार, अभिनेता, शिल्पविशेषज्ञ आदि के रूप में संसार में प्रसिद्ध होते हैं। - मानव योनि से भी उच्च और परिष्कृत योनि है यक्षों की
यक्षों की तरह यक्षिणियां भी मानव योनि में जन्म लेती हैं। उनका मानवी व्यक्तित्व विलक्षण होता है। रूप-रंग, आचार- विचार और रहन-सहन भी होता है उनका विलक्षण। संगीत और गायन कला में अत्यन्त निपुण होती हैं वे और उसी क्षेत्र में धन, यश और कीर्ति उपलब्ध करती हैं। अन्त में संसार में अपना अमिट प्रभाव छोड़कर विदा हो जाती हैं, केवल रह जाती हैं उनकी स्मृतियाँ। वास्तु कला और सेतु-निर्माण कला के भी मर्मज्ञ होते हैं यक्ष। कालिदास वर्णित यक्षों की नगरी 'अलकापुरी' का चित्रांकन अद्भुत है। योग्य संस्कारी मनुष्य के मस्तिष्क के गुह्य भाग को प्रभावित कर, उसके द्वारा यक्षगण वास्तुशास्त्र से सम्बंधित उच्च अट्टालिकाओं, राजप्रासादों, राजमहलों का सुरुचिपूर्ण निर्माण करते हैं। इसी प्रकार करते हैं आश्चर्यचकित कर देने वाले पुलों का भी निर्माण। जब ऐसा संभव नहीं होता तो यक्षगण स्वयं मानव योनि में जन्म लेकर उस कार्य को अपनी कलाबुद्धि से करते हैं जिन्हें देखकर मनुष्य भाव-विभोर हो उठता है।