श्री शुकदेवजी के द्वारा राजा परीक्षित् को दिव्य बोध 


भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार द्वापर के अंत में हुआ था और उसी समय कौरव तथा पाण्डवों में महाभारत का भीषण युद्ध भी। इस महायुद्ध में पाण्डवों की विजय हुई।  
युद्ध समापत होने पर महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेध यज्ञ किये, किंतु उस पर भी उनके हृदय का शोक नहीं मिटा और भगवान् श्रीकृष्ण भी अब अपने लोक को पधार गये, तब तो उन्होंने भी परम वैराग्ययुक्त होकर अभिमन्यु के पुत्र राजकुमार परीक्षित् को राज्य सौंप दिया तथा वे चारों भाइयों और द्रोपदी को साथ लेकर महायात्रा के लिये विदा हो गए।  
एक बार राजा परीक्षित शिकार खेलने के लिए किसी जंगल में अकेले जा पहुँचे। वे चलते-चलते थक गये और प्यास से व्याकुल हो उठे। उन्होंने एक ऋषि को कुछ दूर पर बैठे हुए देखा और उनके पास जाकर जल की प्रार्थना की। मुनि ध्यानमग्न थे, अत: उन्होंने कुछ भी नहीं सुना। राजा परीक्षित को यह देखकर क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा- इस मुनि ने मुझे बैठने के लिये तृण का भी आसन नहीं दिया और न कुछ प्रिय भाषण ही किया।  
एक तो राजा गर्मी, भूख, प्यास आदि से व्याकुल थे, दूसरे उनके स्वर्ण-मुकुट में कलिका निवास था, इससे उनकी बुद्धि विवेकशून्य हो गयी। इसी समय उनकी दृष्टि एक मरे हुए सर्प पर पड़ी। कलिप्रभावित और क्रोध के वशीभूति राजा ने उस सर्प को अपने धनुष के अग्रभाग से उठा लिया और लौटकर उसे ध्यानमग्न ऋषि के गले में डाल दिया। 
ऋषि के गले में सर्प डालकर राजा चले गये, किंतु जब राजा के इस अपराध का पता ऋषि के प्रतापी पुत्र श्रृंगी को मालूम हुआ, तब उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने झट से जल का आचमन करके राजा को शाप दे दिया कि मेरे पिता के गले में मरा हुआ सर्प डालने वाले और इस प्रकार लोकमर्यादा का उल्लंघन करने वाले उसे कुलांगार परीक्षित को आज के सातवें दिन तक्षक सर्प डस लेगा।  
इतने में शमीक ऋषि की समाधि टूटी और उनको इस सारी घटना का पता चल गया। फिर तो वे बड़े खिन्न हुए और उन्होंने अपने पुत्र को डांटकर कहा- अरे मूर्ख! तुमने यह बड़ा पाप किया, जो बहुत थोड़े-से अपराध के कारण परमधार्मिक, महाकीर्तिमान, भगवद्भक्त, अश्वमेधयागी सम्राट् को ऐसा भयानक शाप दे दिया। और व्यथित मन से उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा शाप का सारा वृत्तान्त राजा के पास भेजवा दिया।  
शाप का पता लगने पर वे अपने कुकृत्य पर अत्यन्त पश्चाताप और शोक करने लगे। उसका मन संसार से विरक्त हो गया, परलोक के सम्पूर्ण भोगों से भी उनका मन हट गया। उन्होंने राज्य का सारा भार अपपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मन लगाकर, मृत्युकालपर्यन्त अनाहार-व्रत का संकल्प करके भगवती भागीरथी के पुनीत तट पर चले गये। यह हाल सुनकर वहाँ अनेक ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ऋषि-मुनि पहुँच गये तथा सबने राजा के साथ सहानुभूति दिखलायी। राजा परीक्षित ने उन सबका अभिनन्दन कर महर्षियों से पूछा- भगवान् ऐसा कौन-सा कर्म है, जिसे सब लोग सब अवस्थाओं में- विशेषकर मृत्यु के समय कर सकते हैं तथा जिसके करने से कुछ भी पाप नहीं लगता? इस प्रश्न को सुनकर वहाँ जितने ऋषि-मुनि थे, वे सीाी आपस में वाद-विवाद करने लगे। कोई तप को श्रेष्ठ बतलाता था, कोई-कोई योग और यज्ञ को ही सर्वश्रेष्ठ कर्म कहकर पुकार उठते थे7 
इतने में वहां पर एक अवधूत आ पहुँचे। उनकी अवस्था सोलह वर्ष की थी, शरीर दिगम्बर था तथा मुखाकृति प्रसन्न और तेजयुक्त थी। वे और कोई नहीं, श्री शुकदेव जी थे। सभी महर्षियों सहित राजा ने उनका अभ्युत्थान, अर्चन आदि से स्वागतकर मरणासन्न पुरुष के लिये हितावह परम कृत्य के विषय में पूछा। राजा के द्वारा प्रश्न किये जाने के उपरान्त उन्होंने कहा- राजन्! मोक्ष की इच्छा रखने वाले पुरुष को सर्वात्मा भगवान् श्रीहरि का नाम संकीर्तन करना चाहिये, उनके गुणों को सुनना चाहिये तथा उनका स्मरण करना चाहिये- 
तस्माद् भारत सर्वात्मा भगवान् हरिरीश्वर:। 
श्रोतव्य: कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताऽभयम्।। 
भगवान् श्रीहरि का कीर्तन यदि अन्तकाल में भी हो सके, तो वह पुरुष मरकर श्रीहरि के रूप में जा मिलता है। राजा खट्गांव की कथा तुम्हें मालूम होगी, वह दो घड़ी में ही सम्पूर्ण विषयों का त्याग करके मुक्त हो गया, तुम्हारे लिये तो अभी सात दिन शेष हैं। पहली बात यह कि तुम मृत्यु का भय छोड़ दो, उसके बाद इस शरीर और शरीर के सभी संबंधी जैसे- स्त्री, पुत्र आदि की ममतारूपी रस्सी को वैराग्यरूपी शस्त्र से छिन्न-भिन्न कर दो और एकान्त में बैठकर मन को भगवत्स्वरूप में लगा दो। श्री भगवान् सबके अत:करण में अन्तर्यामीरूप से विराजमान हैं, क्योंकि श्रुति यही कहती है और अनुमान से भी इसी की पुष्टि होती है। जैसे कुल्हाड़ी आदि हथियार वृक्ष को काटने के साधन हैं, किंतु वे सभी हथियार वृक्ष को काटने के साधन हैं, किंतु वे सभी हथ्यिार किसी काटने वाले चेतन के बिना अपना कार्य नहीं कर सकते, वैसे ही मन, बुद्धि आदि भी जड़ पदार्थ हैं और किसी चेतन के आश्रय से ही काम करते हैं। वह चेतन ज्ञानस्वरूप ईश्वर ही है, जो प्रत्येक शरीर में निवास करता है। इस प्रकार के अनुमान से जब पुरुष को ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास हो जाता है, तब उसके हृदय में भगवत्प्रेम उत्पन्न होना भी अशक्य नहीं होता, किन्तु भगवान् में प्रीति प्राप्त करने के साधनों में श्रीहरिकथा के श्रवण से ज्ञान की उत्पत्ति होती है और ज्ञानाग्नि से काम, क्रोध आदि दुर्वृत्तियों का नाश हो जाता है। तदनन्तर विषयों से वैराग्य होकर चित्त प्रसन्न हो जाता है। 
इस सुमधुर सम्भाषण को सुनकर राजा परीक्षित ने श्री शुकदवे जी से श्रीहरिकथामृत का पान कराने के लिये प्रार्थना की। श्रीशुकदेव जी ने एक सप्ताह में उनको श्रीमद्भागवत की कथा सुना दी और उससे राजा को बड़ी सान्त्वना मिली। परमहंस संहिता श्रीमद्भागवत में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की जो त्रिभुवनपावनी त्रिवेणी का स्रोत बहा है, वह सर्वथा अनिवर्चनीय है।