गुरुवर सप्तनाथजी नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्यरत्न थे, वे गुरुदेव ही नहीं, शिष्यों को ही अपना देव मानने वाले सच्चे शिष्यदेव थे, जो उनके सर्वांगीण विकास के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। वे केवल किताबी ज्ञान नहीं प्रदान कर वास्तविक अनुभव सिद्ध ज्ञान प्रदान करने में विश्वास करते थे। कक्षा के सीमित वातावरण में ही कैद रखने के स्थान पर वे अपनी शिष्य मण्डली को उन्मुक्त प्राकृतिक परिपार्श्व में ब्रह्म, जीव और जगत् के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान कराते, शिष्य भी अपने उन मित्र, मार्गदर्शक और माता-पिता की भूमिका निभाने वाले का सच्चे हृदय से सम्मान करते थे। कभी-कभी वे अपने शिष्यों का जीवन सँवारने के लिये नयी-नयी युक्तियों का भी सहारा लेते। उनकी शिष्य मण्डली में समाज के सभी वर्गों के छात्र थे, सामान्य जन से लेकर राजकुमार तक। उनके दूरदर्शी शिक्षण को दरसाने वाली एक घटना निम्नवत् है-
एक बार गुरुदेव शिष्य मण्डली के साथ हरे-भरे वन प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे। प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन करते, लता-वनस्पत्यादि के गुण-दोष का परिचय कराते हुए वे धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। उनकी शिष्य-मण्डली में मगध का राजकुमार भी था। वह स्वभाव से जिज्ञासु, विनम्र और गुरु-आज्ञानुवर्ती था। गुरुदेव की उस पर विशेष कृपा रहती थी। उसके मन में आचार्यश्री के श्रीचरणों में सच्चा अनुराग था। चलते-चलते गुरुदेव एक स्थान पर ठिठककर खड़े हो गये, उनका हाथ काँपा और हाथ से छड़ी गिर गयी। राजकुमार ने दौड़कर छड़ी उठायी और गुरुदेव के हाथ में पकड़ा दी, किंतु बिना बादल बिजली गिरने की तरह गुरुदेव ने उसकी पीठ पर पूरे जोर से प्रहार कर दिया। सुकुमार राजकुमार चोट से तिलमिला उठा, उसकी पीठ पर चोट का निशान बन गया, रक्त भी छलछला गया। चौंकर राजकुमार ने पूछा- गुरुदेव मुझसे क्या चूक हुई? बतायें न कि ऐसा कौन-सा अक्षम्य अपराध मुझे हो गया? गुरुदेव ने उत्तर नहीं दिया, प्रीतिपूर्ण स्वर में बात भी नहीं की। केवल इतना ही बोले कि समय पर इसका उत्तर तुम्हें स्वयं मिल जायगा।
कालचक्र चलता गया। गुरुकुल से लौटकर शिष्य मगध का राजा बन गया, किंतु जब कभी वह एकान्त में बैठता तो गुरु के अप्रत्याशित प्रहार का दंश उसे व्यग्र कर देता। समय सबसे कारगर मरहम है, जो सब घावों को ठीक कर देता है। एक दिन राजसभा में किसी कार्यवश गुरु का पदार्पण हुआ। शिष्य ने अर्घ्य-पद्यादि से गुरु की अभ्यर्थना की, उनके अभीष्ट कार्य को पूरा किया। वह अभी भी उस दिन की घटना को पूरी तरह भूल नहीं पाया था, अत: उसने सविनय प्रश्न कर ही दिया- गुरुदेव! वनस्थली में परिभ्रमण करते हुए उस दिन आपको क्या हो गया था? गुरुदेव हँस पड़े। वत्स!उस दिन मैंने तुम्हें पीटा कहाँ था, मैंने तो तुम्हें पढ़ाया ही था। हाँ, मेरी उस दिन की अध्यापन विधि अन्य दिनों से बिलकुल भिन्न थी। मैंने तुम्हारे और तुम्हारी प्रजा के भावी कल्याण के लिए वैसा किया था। मैं जानता था कि भविष्य में तुम्हें सम्राट बनना है, जिसमें सर्वोच्च न्यायाधीश के रुप में तुम्हें दण्ड-विधान भी करना होगा। तुम प्रमाद से किसी निरपराध प्राणी को दण्ड न दे बैठो, इस उद्देश्य से मैंने निरपराध व्यक्ति को अकारण दण्ड दिये जाने से कितना कष्ट होता है, इस तथ्य का अनुभव कराया। तुम पुर्णतया सोच-विचारकर ही किसी व्यक्ति को दण्ड देना। यही मेरा अभिप्राय था। राजा चरणों में झुक गया और गुरु की पगधूलि माथे से लगायी।
सद्गुरु की सीख, निरपराध को दण्ड न मिलें